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गणतंत्र दिवस

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गंणतंत्र दिवस आज भारत में गणतंत्र दिवस की चकाचौंध के बीच कई कुरीतियाँ व समाज में संकुचित विचारधारा रखने वाले लोग जीवित हैं जिनका  विलुप्त होना आज के समय में काफी मुश्किल प्रतीत होता है । आज मैं अपनी एक और स्वरचित कविता के माध्यम से ऐसी ही विचारधाराओं वाले लोगों पर वार करने का प्रयास करूंगा और साथ ही मैं अगले वर्ष एक सामाजिक एकता व अखंडता से परिपूर्ण गणतंत्र दिवस बनाये जाने की आशा करता हूँ । उम्मीद करता हूँ की मेरी यह रचना आप सभी को पसंद आये। भारतवर्ष में आज बन रहा गणतंत्र है,  राष्ट्र है स्वतन्त्र पर सोच आज भी परतंत्र है । जिस देश के न्याय से गरीब जनता थर्राती है, और जहाँ की लडकियाँ रात को बाहर निकलने से घबराती हैं  । एक चित्रकार अपने विचार प्रस्तुत नहीं कर पता है और, एक नादान विद्यार्थी का कातिल आसानी से बच जाता है । जिस देश के न्याय को माना जाता अँधा है , और जन प्रतिनिधियों की सीट बेचना जहाँ का आम धंधा है  । जिस राष्ट्र में एक जातिवादी नेता प्रतिनिधि बन जाता है , और फिर बेहिचक पूरे देश में हिंसा वो फैलता है । जिस देश...

वो परीक्षा का दिन !

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वो परीक्षा का दिन  मैं जग उठा जनवरी के महीने में,  परीक्षाओं की तैयारी थी करनी खून पसीने से । अभी अभी भूगोल में अपनी नय्या दुब्वा कर आया था ,  अब सर पर भौतिक शास्त्र और इतिहास का साया था । दोनों की परीक्षा देनी थी उस दिन ,  गांधीजी, न्यूटन और फ्लेमिंग.... मैं कैसे बिताऊँ यह दिन तेरे बिन । सन सत्तावन की लड़ाई में हो  चला एक अनोखा खेल , बाजीराव बन गया इस्तर्द और उसका हो गया चुम्बकिये रेखाओं से मेल । मैंने भी इस परीक्षा में अब कुछ अलग कर दिखाने की ठानी , पर इस टाक में ही बना बैठा लक्ष्मीबाई को थोमसन कि नानी । अब मेरा दिमाग था सनक गया , सारा आपा मैंने खोया , खा पीकर आराम से था मैं बिस्तर पर जा सोया । सपने में देखा की मैक्सवेल भैया मुझे अपना दायाँ अंगूठा दिखा रहे थे , पर असल में तो वो थे ' पिस्सो' जो कि लकड़ी मिल बाँट के खा रहे थे । अचानक मैं पहुँच गया विश्वयुद्ध में जहाँ हिटलर ने चला दी मुझ पर गोली , परिणामस्वरूप मास्टर जी ने भर दी अण्डों से मेरी झोली । *सुयश शुक्ल...

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