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कुछ शब्द मेरे उन जन मन को .....।

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आज भारत अपनी स्वतंत्रता के 73वे अध्याय में प्रवेश कर चुका है । पर शायद जिस गौरवशाली इतिहास व सफलता की गगनचुम्बी इमारतों को देख हमारे चेहरे खिल उठते हैं, उस समृद्धि की नींव रखने में लगे तप, त्याग व परिश्रम से हम आज भी परिचित नहीं हैं। राष्ट्रहित में निरन्तर अपना तन,मन धन त्याग चुके कुछ निस्वार्थ जीव जिन्हें हम सैनिक, रक्षक या प्रहरी जैसे अनेकों नाम से संबोधित करते हैं पर सबका सार एक ही है : भारतीय नागरिकों के प्रसन्नचित हृदय व हमारे ताने तिरंगे का एक मात्र कारण - हमारे वीर जवान। आज मैं एक स्वरचित कविता के माध्यम से उन वीर जवानों के त्याग से आप सभी को अवगत कराने का प्रयत्न करने जा रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि मेरी यह रचना भी आप सभी को पसंद आये। कुछ शब्द मेरे उन जन मन को, जो राष्ट्र हित में त्याग चुके हैं, अपने जीवन को, मरण को। रक्त से सज्जित,शिथिल देह में, मर्म हृदय की लपट सहेजे, जब विदा हुए तुम इस धरती से, शौर्य लपेटे, वर्दी में, तब छोड़ गए स्मृतियाँ अनेक, जो न थी  जनक की, न थी प्रेम की, न थी तुम्हारे गाँव की। वो राष्ट्रप्रेम की प्रतिध्वनि थी ,...

एक पीर उठी जब नभ से तब...

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बीते एक सप्ताह में बिहार की एक दर्दनाक तस्वीर देश के सामने आई है जिसका मुख्य कारण चमकी नामक एक महामारी है  । आंकड़ें बताते हैं कि अभी तक करीब १२० से भी ऊपर बच्चों की मृत्यु चुकी है जिसका कारण और कुछ नहीं बस लचर प्रबंधन व् प्रशासन है  । एक मृत बच्चे के ददृष्टिकोण से मैंने इस कविता कि रचना की है जो कि संक्षेप में एक सामान्य परिवार के अनुभवों का व्याख्यान करेगी और शायद प्रशासन को ऐसे अनेक परिवारों की दुःख ओं व्यथा पर नज़र पड़ेगी  । मैं आशा करता हूँ कि मेरी यह कविता भी आप सभी को पसंद आये और आत्ममंथन करने पर मजबूर कर सके  । एक पीर उठी जब नभ से तब, गिरे गगन से अश्क अनेक, थे बिलख रहे मासूम वहाँ, इस धरती को ऐसे सुप्त देख। एक नादान वहाँ से बोला फिर, मैं अभी-अभी था खेल रहा, माँ के आंचल में झूम-झूम, पापा की उंगली पकड़-पकड़, सारे शहर में घूम-घूम। पर तभी चली चमकी की लहर, हरेक गांव, सारे पहर, मेरा चहकता बचपन भी, उसके सामने न सका ठहर। फिर जब पहुँचा अस्पताल, थी रुदन की ऐसी फुहार, उस कोलाहल के बीच खड़ा, मचता जहाँ ह...

कर्म और कथन

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जीवन के बीते तीन वर्षों में कई ऐसे व्यक्तियों से परिचय हुआ जो जीवन में कुछ करने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध रहते थे । उनसे प्रेरणा भी ली और अपने व्यक्तित्त्व में उनके कौशल से पनपती स्फूर्ति के विलय का भी प्रयास किया पर आज ऐसा आभास होता है कि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति में वे मुझसे कहीं दीर निकल चुके हैं और हमारे उनके सामाजिक दायरे में एक सेतु का निर्माण हो चुका है जिसकी नीव मेरी शाब्दिक और उनके कार्मिक माध्यम ने रखी है ।आज ऐसी अनुभूति होने पर मैं अपनी एक और रचना आप सभी के सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ जो कर्म और कथन नामक दो विधाओं के आधीन अपना जीवन यापन करने वाले मनुजों का व्याख्यान करती है । आशा करता हूँ कि मेरी यह रचना आप सभी को पसंद आये । सब कहते हैं , कुछ करते हैं , जग की पटल पर अबकी बार , कुछ नया अनोखा रचते हैं । कहने वाले तो मग्न हो गए , जीवन की रन ओ हवाओं में , चलते चलते फिर ढेर हो गए , इन क्षण भंगुर सी फिजाओं में । पर करने वाले तो कर्मठ थे , जिन्हें शून्य से शिखर तक जाना था, विकर्षण से विभक्त खड़े, बस दुनिया में नाम कमाना था । कहने वाले थे लगे हुए...

मैं नाम बनाने आया हूँ

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जब मेरा शैक्षणिक जीवन निष्कर्ष की तरफ बढ़ चला है तब अनेकों मित्र अपने क्षेत्र में खूब उन्नति करने लग गए हैं । तकनीक से सम्बंधित कौशल होने के उपरांत भी उस दिशा में प्रयासरत न होने बहुत शुभचिंतकों को ठीक नहीं लगा । परन्तु मेरे विचार ऐसी स्तिथि में कुछ और ही थे जिन्हें इस कविता के माध्यम से मैं आप सभी के समक्ष रखने जा रहा हूँ  ।आशा करता हूँ कि मेरी इस रचना को भी आप सब उतना ही प्रेम देंगे जितना मैं बीते ४ वर्षों से अनुभव कर रहा हूँ । ` इस जग के बुद्धि ज्ञाता को मैं यह बतलाने आया हूँ धन वैभव से मुझको मोह नहीं , मैं नाम बनाने   आया हूँ। बंगला, गाडी , ऐश ओ आराम , वाचन से होते जहाँ सारे काम , उन क्षणिक सुख का लोभ नहीं , जो विचार धनिक की पहचान हो , वो सम्मान कमाने आया हूँ धन वैभव से मुखको मोह नहीं मैं नाम बनाने आया हूँ। क्या तत्व बचा है शासन में , कांटो से सज्जित आसन में मेरी तृष्णा का है वो अंग नहीं , जन मानस के मन में चिरजीवी , एक विश्वास जगाने आया हूँ धन वैभव से मुझको मोह नहीं मैं नाम बनाने आया हूँ। जो आज शीर्ष पर विद्यमान हैं ...

मेरा देह नष्ट हो जाएगा पर शब्द अमर रह जाएँगे....।

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जीवन में कभी कभी आवश्यकता से अधिक चिंतन मंथन करने के कारण एक कटु स्तिथि आकास्मक ही मेरे सामने आ जाती है । ऐसे समय में अपने व्यक्तित्व की वास्तविक कीमत पता चल जाती है । उसी अनमोल व्याख्या का काव्य रूपांतरण करती एक कविता मेरे प्रिय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। आशा करता हूँ मेरी यह रचना भी आप सभी को पसंद आये । मेरा देह नष्ट हो जाएगा, पर शब्द अम्र रह जाएँगे । जब गंतव्य से परिचय होगा, और सब रिश्ते छूट जाएँगे, मेरा देह नष्ट हो जाएगा, पर शब्द अमर रह जाएँगे। जीवन की अंतिम ज्योत में, शुभचिंतकों की फ़ौज में, जो लपट उठेगी वो गरजेगी, मेरे कंठ के कौशल का वे अब  पर्याय न खोज पाएंगे । मेरा देह नष्ट हो जाएगा, पर शब्द अम्र रह जाएँगे । गम और शोक की फुहार में, एक व्यक्ति विशेष के इंतज़ार में , जो भाव उठेगा वो बोलेगा कि, ऐसे परमार्थी जीव को वे अब , साक्षात् न देख पाएंगे  । मेरा देह नष्ट हो जाएगा, पर शब्द अम्र रह जाएँगे । अश्कों के अनंत सागर में, उन नम आँखों के पानी में, हर आँसू टप-टप बरसेगा, ऐसी वैचरिक शीतलता का वे अब, अनुभ...

प्रेम और मान

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मैं अपने जीवन में प्रेम और मैत्री के बीच फंसे एक सम्बन्ध को निभाने में इस प्रकार समर्पित हो गया था की अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता करने की दिशा में बढ़ चला था । वास्तविकता से परिचित होने के बाद अपने अनुभवों से सुसज्जित यह कविता आप सभी के सामने प्रस्तुत है । आशा करता हूँ कि मेरी यह रचना आप सभी को पसंद आये । जीवन के भंवर में, अहसासों के समर में , मिलते हैं लोग, मिलता है मान , होता है प्रेम , बढ़ता है सम्मान। रहता है समर्पण, करके तन मन अर्पण , पर मिलती है व्यथा , जब दिखता है दर्पण । लगती है चोट, बढ़ता है विराग, ढलता है जीवन जैसे , बिन बाती का चिराग। हम एक भ्रम के शिकार थे , उनके लिए ही विकार थे , अचानक अजनबी से हो गए, जिनको पहले हम स्वीकार थे । हम करते थे प्रयत्न, और करेंगे प्रयास, संजोयेंगे इस रिश्ते को, जब तक है आस। सर्वस्व को त्यागेंगे, परिस्थिति से न भागेंगे, जब तक समाज में सम्मान है, इस व्यक्तित्व पर अभिमान है, तब तक इस रूआसी  रात में भी, हँसते-हँसते जागेंगे । जब परिचय हुआ एक सत्य से, इस जीवन के एक तथ...

स्वर्णतंत्र

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स्वर्णतंत्र कई बुद्धिजीवियों का कहना था कि मैंने कुछ वर्ष पूर्व गणतंत्र दिवस पर जो कविता लिखी थी उससे  नकारात्मकता का संचार होता है । पर जनाब देश की समस्याओं का व्याख्यान करना आत्ममंथन का अंश है और आत्ममंथन से कमियां ही निकल के आती है यह उन्हें नहीं सूझा। बहरहाल मैंने भी अपने कलम की सहायता से एक कविता की रचना की जिसमें मैं एक समृद्ध राष्ट्र से अपने पाठकों को परिचित करा रहा हूँ । उस संपन्न राष्ट्र को मैंने  स्वर्णतंत्र नाम दिया है । आशा करता हूँ कि यह रचना आप सभी को पसंद आये। एक स्वर्ण तंत्र की है आस मुझे , पाएंगे है विश्वास मुझे  एक स्वर्ण तंत्र की है आस मुझे  । जब नभ के अंतस्थल से गूंजेगा,महा संगठन का नारा , और हम क्षण भंगुर जीवों को होगा, देश हित सबसे प्यारा , जब संसार सलामी देगा, अपना मस्तक झुकाएगा , और कोई आगंतुक कुकर्मी हमारे प्रहरी से घबराएगा , जहाँ उंच नीच का भाव न होगा ,न धर्म जाट का फेरा , हर वर्ग प्रेम से बोलेगा , यह भारत देश है मेरा , जहाँ ख़ास न होगा , आम न होगा , निर्माण छोड़ कोई काम न होगा , ऐसा गंतव्य दिखता है अब पास...

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