कर्म और कथन
जीवन के बीते तीन वर्षों में कई ऐसे व्यक्तियों से परिचय हुआ जो जीवन में कुछ करने के लिए निरंतर प्रतिबद्ध रहते थे । उनसे प्रेरणा भी ली और अपने व्यक्तित्त्व में उनके कौशल से पनपती स्फूर्ति के विलय का भी प्रयास किया पर आज ऐसा आभास होता है कि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति में वे मुझसे कहीं दीर निकल चुके हैं और हमारे उनके सामाजिक दायरे में एक सेतु का निर्माण हो चुका है जिसकी नीव मेरी शाब्दिक और उनके कार्मिक माध्यम ने रखी है ।आज ऐसी अनुभूति होने पर मैं अपनी एक और रचना आप सभी के सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ जो कर्म और कथन नामक दो विधाओं के आधीन अपना जीवन यापन करने वाले मनुजों का व्याख्यान करती है । आशा करता हूँ कि मेरी यह रचना आप सभी को पसंद आये ।
सब कहते हैं ,
कुछ करते हैं ,
जग की पटल पर अबकी बार ,
कुछ नया अनोखा रचते हैं ।
कहने वाले तो मग्न हो गए ,
जीवन की रन ओ हवाओं में ,
चलते चलते फिर ढेर हो गए ,
इन क्षण भंगुर सी फिजाओं में ।
पर करने वाले तो कर्मठ थे ,
जिन्हें शून्य से शिखर तक जाना था,
विकर्षण से विभक्त खड़े,
बस दुनिया में नाम कमाना था ।
कहने वाले थे लगे हुए,
उस कृत्रिम क्षणिक सी शान में ,
समाज की दृष्टि में प्रवंचित,
एक साधारण से अभिमान में।
वहीँ कर्मयोगी थे व्यस्त वहाँ,
सृष्टि सुप्त रहती है सदा ,
ऐसे प्रतिकूल परिवेश में,
विध्वंस नया होता है जहाँ ।
पर संघर्ष ही वो मार्ग है,
जहाँ सुविधाओं का परित्याग है,
सफल बनने की राह में,
जिसके अनेक संभाग हैं।
जीवन की इस दौड़ में ,
कौशल आवरित रहता है,
जिसके साक्षात् का रहस्य सिर्फ,
कर्म रस में बहता है।
संसार के वादन यंत्र में,
उद्घोष करो , प्रलाप करो,
पर कथन से नहीं कर्म से,
अपने हुनर की हुंकार भरो।
- सुयश शुक्ल
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