स्वर्णतंत्र

स्वर्णतंत्र


कई बुद्धिजीवियों का कहना था कि मैंने कुछ वर्ष पूर्व गणतंत्र दिवस पर जो कविता लिखी थी उससे  नकारात्मकता का संचार होता है । पर जनाब देश की समस्याओं का व्याख्यान करना आत्ममंथन का अंश है और आत्ममंथन से कमियां ही निकल के आती है यह उन्हें नहीं सूझा। बहरहाल मैंने भी अपने कलम की सहायता से एक कविता की रचना की जिसमें मैं एक समृद्ध राष्ट्र से अपने पाठकों को परिचित करा रहा हूँ । उस संपन्न राष्ट्र को मैंने स्वर्णतंत्र नाम दिया है। आशा करता हूँ कि यह रचना आप सभी को पसंद आये।


एक स्वर्ण तंत्र की है आस मुझे ,
पाएंगे है विश्वास मुझे 
एक स्वर्ण तंत्र की है आस मुझे 

जब नभ के अंतस्थल से गूंजेगा,महा संगठन का नारा ,
और हम क्षण भंगुर जीवों को होगा, देश हित सबसे प्यारा ,
जब संसार सलामी देगा, अपना मस्तक झुकाएगा ,
और कोई आगंतुक कुकर्मी हमारे प्रहरी से घबराएगा ,
जहाँ उंच नीच का भाव न होगा ,न धर्म जाट का फेरा ,
हर वर्ग प्रेम से बोलेगा , यह भारत देश है मेरा ,
जहाँ ख़ास न होगा , आम न होगा ,
निर्माण छोड़ कोई काम न होगा ,
ऐसा गंतव्य दिखता है अब पास मुझे ,
एक स्वर्ण तंत्र की है आस मुझे,
पाएंगे है विश्वास मुझे ।

जब धरा की आँचल के रखवाले अपना जीवन जी पाएंगे ,
और शांति भंग करने वाले, घर बैठ पछतायेंगे ,
जब नया सवेरा होगा, दिनकर मन मंद मुस्काएगा ,
और भारतवर्ष हार क्षेत्र में निरंतर गौरव पायेगा ,
जब भरी निशा के बीच भी हम निर्भीक भ्रमण कर पाएंगे ,
और आने वाली पीढ़ी के लिए एक स्वर्णिम राष्ट्र बनायेंगे ,
ऐसे राष्ट्रोदय के ज्वलंत पथ पर दिखता है अब प्रकाश मुझे ,
एक स्वर्ण तंत्र की है आस मुझे ,
पाएंगे है विश्वास मुझे ।

जब ध्वज की गरिमा, देश भक्ति एक दीर्घ भाव बन जाएगा ,
और कलमकार भी अपने क्षेत्र में ख्याति पायेगा ,
जहाँ शौर्य का सम्मान रहेगा ,
अपने रक्षक पर अभिमान रहेगा ,
ऐसे आदर्श राष्ट्र के लिए अभी करने हैं बहुत प्रयास मुझे ,
एक स्वर्ण तंत्र की है आस मुझे ,
पाएंगे है विश्वास मुझे ।


-सुयश शुक्ल 

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