कुछ शब्द मेरे उन जन मन को .....।

आज भारत अपनी स्वतंत्रता के 73वे अध्याय में प्रवेश कर चुका है । पर शायद जिस गौरवशाली इतिहास व सफलता की गगनचुम्बी इमारतों को देख हमारे चेहरे खिल उठते हैं, उस समृद्धि की नींव रखने में लगे तप, त्याग व परिश्रम से हम आज भी परिचित नहीं हैं। राष्ट्रहित में निरन्तर अपना तन,मन धन त्याग चुके कुछ निस्वार्थ जीव जिन्हें हम सैनिक, रक्षक या प्रहरी जैसे अनेकों नाम से संबोधित करते हैं पर सबका सार एक ही है : भारतीय नागरिकों के प्रसन्नचित हृदय व हमारे ताने तिरंगे का एक मात्र कारण - हमारे वीर जवान।

आज मैं एक स्वरचित कविता के माध्यम से उन वीर जवानों के त्याग से आप सभी को अवगत कराने का प्रयत्न करने जा रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि मेरी यह रचना भी आप सभी को पसंद आये।



कुछ शब्द मेरे उन जन मन को,
जो राष्ट्र हित में त्याग चुके हैं,
अपने जीवन को, मरण को।

रक्त से सज्जित,शिथिल देह में,
मर्म हृदय की लपट सहेजे,
जब विदा हुए तुम इस धरती से,
शौर्य लपेटे, वर्दी में,

तब छोड़ गए स्मृतियाँ अनेक,
जो न थी  जनक की, न थी प्रेम की,
न थी तुम्हारे गाँव की।
वो राष्ट्रप्रेम की प्रतिध्वनि थी ,
थी समरसता के समभाव की।

जो कर रही थी स्पर्श निरन्तर
माँ भारती के चरण के
कुछ शब्द मेरे उन जन मन को।

जन मानस थे कुछ वीर वहाँ,
उस रजप्रेमी के साथ खड़े,
उठती हिलोर और ध्वनिघोष,
जो तन मन को निस्तब्ध करे,
रोती माई को देख तभी,
फिर गरज उठा था महाशून्य,
उस दिवंगत सैनिक की याद में
जिसके कर्मों का परिलक्षण,
कहता भूमि के नमन को,
कुछ शब्द मेरे उन जन मन को।

वो कहते हैं तुम मर्त्य नहीं, संजीव हो,
इस राष्ट्र का गौरव हो, रणकौशल हो, शहीद हो,
पर याद तुम्हें हैं करते सब,
उन क्षणिक दिवस के आने पर,
खुद के अंतर्मन से नहीं,
किसी दूजे के समझाने पर,
जब गगन में तिरंगा लहराता है,
बूढ़ा, बच्चा, धनाढ्य, गरीब
जब एक स्वर में जयगान गाता है।

फिर नई सुबह के बीच कहीं,
ऐसी कीर्ति का विजयघोष 
मिलता है नहीं श्रवण को
कुछ शब्द मेरे उन जन मन को।

- सुयश शुक्ला

Comments

  1. dil ko sparsh karte hue shabad...bhut hi umda likhte ho janaab

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