सफलता
वर्तमानकालीन संसार में एक धारा के लोगों के
अनुसार सफलता के शिखर पर आसीन होना एक ऐसी उपलब्धि बन चुकी है जिसका सरोकार कर्म
से अतिरिक्त हर क्रत्रिम और स्थायी वस्तु से बन चूका है । परिणामस्वरूप वे
उपरोक्त दिए गए आधार पर ही संसार के समस्त मनुष्यों का आंकलन करने में लग जाते हैं
और उस सभी की मानसिक व्यथा का कारण भी बन जाते हैं । मैं भी उसी व्यथित समूह से
निकला एक मानस हूँ जो अपने विचार आप सभी के समक्ष इस कविता के माध्यम से रखनेका
प्रयास कर रहा हूँ । आशा करता हूँ कि मेरी यह कविता आप सभी को पसंद आये ।
सफलता की खोज में ,
ख्याति की ओज में ,
राह – राह भटकता हूँ ,
पर यह नहीं समझता हूँ
सफलता विजय है, विराम नहीं,
सफलता विजय है, विराम नहीं,
और इसको अर्जित करना
इतना भी आसान नहीं ।
ढूँढ़ते हैं लोग इसे शरीर की चाल में
सुंदर काया में , मनमोहक बाल में ,
कपड़ों की बनावट में , साज सजावट में ,
धन वैभव के रौब में , चापलूसों की फ़ौज में ,
शर्ट की सिलाई में, पैन्ट की ऊँचाई में,
अपनी झूठी शान में , दूजों के अपमान में,शरीर के आकार में , और उसके चतुर्दिक प्रचार
में।
दिन ब दिन,
पहर दर पहर,
सुबह शाम,
यूँ इसी कदर,
सबको चोट पहुँचाते हैं,
और खुद को सफल बतलाते हैं ।
पर सफलता अगोचर है , अविरल नहीं,
इसको प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं ।
सफलता व्याकुलता का परिणाम है ,
परिश्रम का दूजा नाम है,
मानस के भीतर की चेतना है,
जिसे एक समृद्ध संसार देखना है ।
निस्वार्थ कार्य जो करता है,
और अपने गंतव्य पथ से
जो कभी भी नहीं विचरता है,
और अपने गंतव्य पथ से
जो कभी भी नहीं विचरता है,
वो सौम्य आचरण वाला मन ,
सूरत में शायद हो कुछ कम ,
कपड़ों का उसमें न हो ढंग ,
और शरीर नहीं रहता हो संग ।
पर कामयाबी की चोटी पर,
वो ही अकेला चढ़ता है,
जिस पर ऐसे अपवादों का क्षणिक फर्क न पड़ता है ।
समाज में सम्मान के लिए,
अपने कर्मों पर अभिमान के लिए,
उन व्यर्थ विकर्षित धाराओं से
जो सतह चीरकर निकलता है ,
वो ही सफलता चखता है ,
वो ही सफलता चखता है ।
- सुयश शुक्ला
अद्भुत पंक्तियाँ👌
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