जाते-जाते फिर एक बार.....

आज मुझे एक कुशल व्यक्ति बनाने में जिन व्यक्तियों का अभिन्न योगदान रहा है उनमें से कुछ अपने जीवन में नयी आशाओं व उमंगों की खोज करने के लिए अग्रसर होने जा रहे हैं। उनके साथ मेरे अनुभव का संक्षिप्त व्याख्यान करती एक कविता। आशा करता हूँ कि मेरी यह रचना आप सभी को पसंद आये।


जाते जाते फिर एक बार
उन यादों को दोहराते हैं,
और विदाई की इस बेला में ,
व्यथित हृदय को बहलाते हैं।


वो अक्टूबर की सुर्ख दुपहरी थी,
कुछ सीखने की इच्छा गहरी थी,
आपके पास ज्ञान का भंडार था,
और हमने उसे पाने के लिए उत्साह अपार था।


वो साप्ताहिक PSET भी बड़ा याद आता है,
जिसे हल करने में आज भी पूरा दिन निकल जाता है,

आप पढ़ाते गए, हम पढ़ते गए,
एक सुनहरे भविष्य की तरफ इसी तरह कदम दर कदम बढ़ते गए।

फिर एक दिन हम भी आपमें से एक हो गये,
अचानक से ऐसे परम ज्ञानियों के समूह को देखकर अचंभित से रह गए।


फिर वक़्त आया दुबारा इतिहास दोहराने का,
जिस LETS CODE ने हमें बनाया था उसे स्वयं आयोजित करवाने का।
आयोजन हुआ, सीखने वाले भी आये,
पर जो जादू आप सब की मौजूदगी में था, उसे हम दोहरा नहीं पाए।


ऐसे ही जीवन चलता गया,
दिन निकलते गये, वक़्त बढ़ता गया।

इन सुखद अनुभूतियों के बाद अब विदाई का समय आया,
जो अपने साथ कुछ अनुराग के पल और विषाद के अनुभव भी लाया।
पर इन उदासीन पलों के बीच एक उत्कर्ष सा भाव है,
क्योंकि यह वैराग्य की स्थिति नहीं विकास का संभाव है।


*सुयश शुक्ला*

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